Description
ABOUT THE BOOK
मध्यवर्ग की ऊब और उदासी में डूबे अकेलेपन का कोरसगान कर रही आज मध्यवर्गीय जीवन संवेदना वाली कविताओं के एक ऐसे समय में जब अभावों और दरिद्रता का अंधेरा गांवों को लीलता जा रहा है। तिल-तिल टूटते-बिखरते गांव आज की कहानियों और कविताओं से लगातार बेदखल हो रहे है। तब सतपुड़ा की ऊबड़-खाबड़ पगडंडियों के सहारे रमेश गोहे की ये कविताएं उन्हीं बदरंग हो रहे गांवों की ओर हमें ले जा रही हैं। बिलकुल उसी तरह जैसा कभी मुक्तिबोध ने कहा था- “कविता में कहने की आदत नही, पर कह दूँ।”
(भूमिका से)
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