Description
“हसरत ये नहीं, तू हम-परवाज़ हो मेरा ,
तमन्ना है, तेरे ज़हन में इज़न-ए-परवाज़ आए ।
जन्नत ही मिले, या रिहाई हो ,
क्या कीजियेगा जो मौत के बाद आए।
इस किताब में समाज, व्यक्ति, प्रेम व वैचारिक द्वंद के मध्य में बनी गयी कविताओं का संग्रह है। यह पुस्तक जहां सामाजिक समस्याओं, लिंग भेद आधारित समस्याओं को उजागर करती है, वहीं उनका हल भी सुझाती है। किसी भी कविता का वैचारिक अर्थ , पढ़ने वाले के विचारों पे निर्भर करता है। यदि आपके विचार कवि से मिलते हैं तो आपको आनंद की अनुभूति हो सकती है, आप कुछ पंक्तियों पर आंसू भी बहा सकते है, कुछ पंक्तियाँ आपको अंदर तक झकझोर सकती हैं।किन्तु यदि आप वैचारिक रूप से लेखक से भिन्न समझ रखते हैं तो भी आप सोचने पे अवश्य मजबूर होंगे।
Reviews
There are no reviews yet.