Description
इस पुस्तक का नाम है कसक! कसक का शाब्दिक अर्थ होता है-टीस ।टीस का मतलब होता है- रह रह कर होने वाला दर्द । ऐसा दर्द जिसे हम किसी को न तो बता सकते हैं और न हीं जता सकते हैं ।जब किसी के शरीर में कहीं चोट लगती है तो वहाँ जख्म हो जाता है और उस जख्म में रह रह कर दर्द होता है और दवा के सेवन से वह दर्द ठीक भी हो जाता है ।लेकिन जब दिल में चोट लगती है तो उसका जख्म जीवन भर नहीं भरता है । उसमें न तो दवा काम आता है और न हीं दुआ ।लोग हमेशा दिल में एक राज को छिपा कर अपने किस्मत को कोसते रहते हैं ।हमेशा परेशान रहते हैं ।कुछ लोग तो आत्महत्या भी कर लेते हैं और कुछ तो जीवन को भार स्वरूप समझ कर जीते हैं ।परंतु हमारी जिंदगी तो भगवान के द्वारा दिया हुआ उपहार है ।इसलिए हमें मौज़ मस्ती के साथ जीने का प्रयास करना चाहिए । इस पुस्तक में मैंने यथार्थ को रचने का प्रयास किया है। इसकी प्रत्येक पंक्ति संवेदनशील है, जो अंतर्मन को झकझोर देती है। इसमें मैंने श्रृंगार रस से लेकर वीर रस तक का सफर करने का प्रयास किया है।या यूं कहे कि इसमें सब रसों का समागम है। इसमें एक प्रेमी का अपने प्रेमिका के साथ आदर एवं वासना मुक्त प्रेम की चर्चा है। जो इस आधुनिक युग में भी सच्ची श्रद्धा और विश्वास के साथ आस लगाये हैं । उनके हृदय में सागर से भी ज्यादा गहरा प्रेम है ।उनके मिलन बिछुड़न की दास्तान है। साथ हीं साथ इसमें सामाजिक, राजनैतिक मुद्दों पर भी लिखने का प्रयास किया हूँ ।एक आम आदमी,एक गरीब किसान, माँ, बेटा ,सैनिक की पत्नी, बेरोजगार युवा तथा प्यार करने वाले युगल की दास्तान है यह पुस्तक ।इसमें हर उम्र के लोगों को ध्यान में रखते हुए मैंने पंक्तियाँ लिखने का प्रयास किया हूँ ।मुझे आशा हीं नहीं पूर्ण भरोसा है कि आप लोगों यह रचना बेहद पसंद आयेगी और आप लोगों का मुझे भरपूर प्यार मिलेगा । विजय कुमार वैभव ।
About the Author
मेरा नाम विजय कुमार वैभव है ।मेरा जन्म 15 फरवरी 1996 ई को बिहार राज्य के पूर्णिया ज़िला के बनमनखी प्रखंड के तेतराही गाँव में हुआ था ।मेरी माँ का नाम श्रीमती पंची देवी तथा पिता जी का नाम स्वर्गीय सुरेश प्रसाद यादव है ।मेरे पिता जी होमगार्ड (गृह वाहिनी रक्षा ) की नौकरी करते थे ।1999ई में इलेक्शन ड्यूटी के दौरान बिहार के बेगुसराय जिला गंगा नदी में नाव दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई ।उस वक्त मैं बहुत हीं छोटा था ।मुझे अपने पिता का स्वरूप भी ठीक ठीक याद नहीं है । मेरी माँ बहुत हीं सहनशील महिला है ।उसने मुझे और मेरी दो बहनों को भी पढाया ।हमें कभी भी किसी चीज की कमी नहीं होने दी ।हमें पता हीं नहीं चला कि मेंरे पिता जी इस संसार में नहीं हैं । मैंने अंग्रेजी विषय में स्नातक तक की पढ़ाई की ।मेरे परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। क्योंकि मेरे यहाँ कमाने वाला कोई नहीं था ।इसलिए मैंने सत्रह वर्ष की उम्र से हीं स्कूलों में नौकरी किया करता था ।जहाँ मुझे 1200 रूपये की मासिक वेतन मिलता था ।जिससे न तो मेरा खुद का खर्चा चलता था और न हीं परिवार का ! इसलिए मैंने वो नौकरी छोड़ दी और पूर्णिया में हीं एक कोचिंग संस्थान की स्थापना की ।लेकिन वह कोचिंग संस्थान भी छः महीने के बाद बंद हो गई ।क्योंकि उस वक्त मेरी उम्र बहुत हीं कम थी ,साथ हीं साथ अनुभव की भी कमी थी।फिर उन्नीस वर्ष की उम्र में पूर्णिया ज़िला के बुढिया धनघटटा गाँव यानी कि अपने ननिहाल में आकर प्रगतिशील नामक शिक्षण संस्थान की स्थापना की ।जो अभी भी कार्यरत है ।इसमें गाँव के गरीब बच्चे पढ़ते हैं ।क्योंकि अमीर आदमी तो अपने बच्चे को पढ़ने के लिए शहर भेज देते हैं । मुझे बचपन से हीं कविता कहानी पढ़ने का बड़ा शौक है ।मेरे सामने जो भी घटित होता है उसे मैं कविता शायरी का रूप देने का प्रयास करता हूँ । मैं चाहता हूँ कि साहित्य के क्षेत्र में अपना भी कुछ योगदान दूँ ।क्योंकि साहित्य समाज का दर्पण है और साहित्यिक क्षेत्र अपना भी एक विशेष पहचान बनाऊं । विजय कुमार वैभव
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